देहरादून। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की देहरादून शाखा के निरंजनपुर स्थित आश्रम सभागार में आयोजित रविवारीय सत्संग में प्रवचन एवं मधुर भजन-संर्कीतन कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में संस्थान के संस्थापक एवं संचालक सद्गुरू आशुतोष महाराज की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी ममता भारती ने संगत को सम्बोधित करते हुए कहा कि भक्ति का अर्थ भगवान से हर समय कुछ न कुछ मांगते रहना नहीं है। भक्ति तो प्रभु से जुड़ना, उनसे एकाकार हो जाना है। जहां भक्ति है वहां मांग नहीं समर्पण ही समर्पण है। ईश्वर की रजा में हर पल राजी रहना, एक भक्त की पहचान है।
ऐसे भक्त जिनकी कोई इच्छा नहीं, जिनकी कोई अभिलाषा नहीं, जिनकी कोई महत्वाकंाक्षा नहीं, भगवान स्वयं एैसे भक्तों पर हर क्षण दयाल रहा करते हैं। एैसे भक्त जो कि अनन्य भाव से मात्र एक ईश्वर की आराधना किया करते हैं, उन्हीं पर मात्र आश्रित रहा करते हैं, भगवान उनका योग तथा क्षेम स्वयं वहन किया करते हैं। भगवान से शिकायत उन्हीं को हुआ करती है जिनके भरोसे में कमी होती है। सच्चा भक्त तो मात्र इतना जानता है- न कोई शिकवा न कोई अर्जी, जो तू चाहे तेरी मर्जी। एैसे भक्त के जीवन का आधार मात्र ईश्वर हुआ करते हैं, ठीक एैसे ही जिस प्रकार मछली के जीवन का आधार मात्र जल होता है भगवान के बिना उनके जीवन की कोई कल्पना भी नहीं। उनके अनुसार तो- प्रभु तू मिला तो जग मिला, तू नहीं तो कुछ भी नहीं। भक्ति की एैसी उच्च पराकाष्ठा को प्राप्त करना कोई सरल बात नहीं है। एैसा तो मात्र तभी हो पाता है जब मनुष्य के जीवन में कोई पूर्ण महापुरूष आ जाए। पूर्ण सद्गुरू के पावन ‘ब्रह्म्ज्ञान’ की शीतल छाया तले ही यह उच्चतम भाव जीव के भीतर उजागर हो पाते हैं। अनमोल मानव तन पाकर भी यदि सद्गुरू की शरण प्राप्त न हुई तो जीवन अधूरा ही चला जाता है। पूर्ण गुरू की प्राप्ति से ही जीवन पूर्ण बनता है। सद्गुरू ही जीव को भवसागर से पार लगाने की असीम सामर्थ्य रखते हैं। गुरू की कृपा के बिना जीवन ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार दिल की धड़कन के बिना शरीर हुआ करता है। उन्होंने कहा ििक वास्तव में गुरू का अर्थ ही होता है जो अज्ञानता के अंधकार से प्रकाश की ओर लेकर चले। गुरू आज्ञा में चलकर ही गुरू को समझा भी जा सकता है और पाया भी जा सकता है। भजनों की सारगर्भित व्याख्या करते हुए मंच का संचालन साध्वी सुभाषा भारती के द्वारा किया गया। उन्होंने बताया कि ईश्वर जब जीव पर प्रसन्न होते हैं तो उसे कोई दुनियावी वस्तु न देकर पूर्ण गुरू का दिव्य संग प्रदान कर देते हैं। सत्संग वह अनमोल दौलत है जो जीते-जी और मरणोपरान्त भी अंग-संग साथ निभाता है।